मेरे ज़मीर का रुतबा आज कम न होता
अगर मेरी तकदीर में
इसे बचाने का ग़म न होता
कुछ अपनी उमीदें भी रुलाती हैं
हर बार रुलाने वाला दर्द नहीं होता
अपना ग़म खुद से ही बाँटती हु
क्योंकि हर किसी के पास
ग़म बाँटने के लिए हमदर्द नही होता
थोड़ा खुदगर्ज़ हो गया है ज़माना
पर सच्च ये भी है कि ज़माने में
हर इन्सान खुदगर्ज़ नही होता
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